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बिहार के अमित दास ने 250 रुपए से तय किया 150 करोड़ तक का सफर

 

             BY  DIVAKAR KUMAR PANDAY.संसाधन नहीं होने के बावजूद भी अपनी ज़िद और लगन से अपने सपनों को कुछ लोग हासिल कर लेते हैं , ऐसे ही शख्सियत हैं बिहार के अमित कुमार दास जिन्होंने कठिन परिश्रम कर 250 रुपए से 150 करोड़ तक का सफर तय किया। अमित कुमार दास का जन्म बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज कस्बे के एक किसान के घर में हुआ था। उनके परिवार में लडके ज्यादातर बड़े होकर खेती-बाड़ी ही किया करते थे। लेकिन वो इस परंपरा को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे, वो बचपन से ही इंजीनियर बनने का सपना मन ही मन संजोय रहे थे। लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि घर चलाने के साथ ही बेटे की पढ़ाई का खर्च उठा सके। पैसे नहीं होने के बावजूद जैसे - तैसे करके उन्होंने सरकारी स्कूल से स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद पटना के एएन कॉलेज से साइंस से इंटर किया।अमित 12वीं करने के बाद समझ नहीं पा रहे थे कि अपने इंजीनियर बनने के सपने को कैसे पूरा करें,लेकिन उन्होंने मन में आगे बढ़ने का निश्चय कर लिया, चाहें कुछ भी हो जाएं अपने सपने को चकनाचूर नहीं होने देंगे। तब उन्होंने अपने परिवार पर ज्यादा पैसे का  बोझ ना डालते हुए 250 रुपए लेकर दिल्ली की तरफ रूख किया। दिल्ली पहुंचने के बाद उनकी संघर्ष की कहानी शुरू हुई, दिल्ली जैसे शहर में इतने कम पैसे में गुज़ारा करना उनके लिए काफी मुश्किल था, इसलिए उन्होंने पैसे के अभाव में गुरूद्वारे में खाना खाया तो वहीं दूसरी ओर रात में सोने के लिए रेलवे स्टेशन का सहारा भी लिया।  ऐसे में उन्हें एहसास हुआ कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई का खर्च उठाना संभव नहीं,तब उन्होंने काफी संघर्ष के बाद बच्चों को पार्ट टाइम पढ़ाना शुरू कर दिया, ताकि अपने खर्च के साथ ही अपने सपने को पूरा कर सके। दिल्ली जैसे शहर में उन्हें पहचाने वाला उस वक़्त कोई न था, इसलिए उन्हें काफी भटकना पड़ा। कुछ दिनों तक उनकी ज़िन्दगी ऐसे ही चलती रही और बच्चों को पढ़ाकर पैसे जमा करने में जुटे रहे ताकि अपना दाखिला इंजीनियरिंग कॉलेज में करा सके।अमित बच्चों को पढ़ाने के साथ ही अपनी पढ़ाई भी करते ताकि उनका सरकारी कॉलेज में एडमिशन हो सके। उन्होंने ट्यूशन पढ़ाने के साथ ही दिल्ली यूनिवर्सिटी से बीए की पढ़ाई शुरू कर दी और उसी दौरान उन्होंने कंप्यूटर सीखने कि सोची, क्योंकि दिल्ली आने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि आज के समय में कंप्यूटर सीखना हमारे लिए बहुत ज्यादा जरूरी है। जिसके बाद अमित दिल्ली के एक प्राइवेट कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर पहुंचे। वहां पहुंचने के बाद  रिसेप्‍शनिस्ट ने उनसे अंग्रेजी में सवाल पूछे, लेकिन वो उस वक़्त चुप रहे कुछ बोल नहीं पाए इस वजह से  रिसेप्‍शनिस्ट ने अंदर जाने से उन्हें मना कर दिया।इस वाक्या के बाद वो अंदर ही अंदर टूट से गए, उन्हें लगा  बिना अंग्रेजी बोले आगे बढ़ना संभव नहीं और वो दुःखी होकर अपने घर जाने लगे। तभी एक आदमी ने उनसे दुःखी होने का कारण पूछा, तब उस आदमी ने अमित को इंगलिश स्पीकिंग कोर्स करने का सुझाव दिया। उस व्यक्ति का सुझाव उन्हें पसंद आया और कैसे भी पैसे का जुगाड़ करके अंग्रेजी का कोर्स ज्वॉइन कर लिया।अंग्रेजी बोलने के साथ ही उनके अंदर पहले से कई गुना ज्यादा आत्मविश्वास भी बढ़ गया था, इसी के साथ वो उसी कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में पहुंचे जहां अग्रेंजी नहीं बोलने की वजह से एडमिशन नहीं मिला था, लेकिन इस बार उनका दाखिला हो गया और वो कंप्यूटर कोर्स की परीक्षा में अव्वल रहे और उनके टैलेंट को देखते हुए इंस्टीट्यूट ने उन्हें फैकल्टी के तौर पर नियुक्त कर लिया। उन्हें पहली सैलरी उस वक़्त 500 रूपए मिली । कुछ साल तक वहां काम करने के बाद उन्हें इंस्टीट्यूट की तरफ इंग्लैंड जाने का ऑफर मिला, लेकिन अमित ने जाने से इंकार कर दिया।  क्योंकि वो जॉब छोड़कर अपना बिज़नेस शुरू करने का मन बना चुके थे। फिर उन्होंने दिल्ली में एक छोटी-सी जगह किराए पर ली और अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी आइसॉफ्ट शुरू की। लेकिन कुछ महीने तक उन्हें एक भी प्रोजेक्ट न मिल सका,लेकिन उस वक़्त जैसे - तैसे करके अपना गुजारा किया और हिम्मत नहीं हारी मेहनत के साथ आगे बढ़ते रहे।अमित की  मेहनत रंग लाई और फिर उनको छोटे प्रोजेक्ट मिलने शुरू हो गए, उन्हें अपने पहले प्रोजेक्ट से 5000 रुपए मिले। शुरुआत के दिनों में उनके पास लैपटॉप खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए क्लाइंट्स को अपने सॉफ्टवेयर दिखाने के लिए अपना सीपीयू साथ ले जाया करते थे। फिर  2006 में उन्हें ऑस्ट्रेलिया में एक सॉफ्टवेयर फेयर में जाने का मौका मिला और उन्होंने अपनी कंपनी को सिडनी ले जाने का फैसला कर लिया। जिसके बाद धीरे - धीरे उनके साथ हज़ारों क्लाइंट्स जुड़ते चले गए। आज 150 करोड़ से ज्यादा उनकी कंपनी का टर्नओवर है। इनकी कंपनी लंदन के अलावा दिल्ली और पटना में भी स्थित है।अमित तो खुद इंजीनियर नहीं बन सके लेकिन उन्होंने बिहार के फारबिसगंज में साल 2009 में पिता की मृत्यु के बाद उनके नाम पर मोती बाबू इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी कॉलेज खोला। वो चाहते थे कि उनके गांव के बच्चों को वो सारी सुविधा मिल सके जो उन्हें नहीं मिली। अमित उन लोगों में से हैं जो अपने मुकाम को हासिल करने के बाद भी अपने देश की उन्नति के बारे में सोचते हैं । इनकी कहानी हमारे लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं, क्योंकि उन्होंने जिस हालात में गांव से विदेश पहुंचने तक का सफर तय किया वो हर किसी के लिए आसान नहीं।

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